बनी रहे बुज़ुर्गों के प्रति श्रध्दा और अनुराग;उनकी दुआओं से ही जागते हैं हमारे भाग.

रविवार, 28 अगस्त 2011

धर्म के सागर का एक धर्म बिन्दु

पीढ़ी का अंतर तो था ही साथ ही आधुनिक परिवेश का भी असर मुझ पर था .धर्म के स्वरूप को लेकर तो ,कभी धार्मिक मान्यताओं को लेकरकई बार पिताजी से चर्चा रूपी बहस हो जाया करती थी ,इस विषय पर उनके लिखे कुछ दस्तावेजों सार इस ब्लॉग के माध्यम से बार लिखा है .धर्म को परिभाषित करते हुए वे कहते की धर्म को समझने के लिए एक मार्ग बनाया गया है उस पर चलते हुए ही उसे समझा जा सकता है न की पार खड़े रहकर धर्म की गहराई को नापा जा सकता है





धर्म या मत या सम्प्र्यदाय हर व्यक्ति विशेष के लिए अलग -अलग अर्थ रखता है ,धर्म अर्थात आचरण ,सामूहिक रूप से एक समुदाय का समान आचरण करना,या समुदाय को इस आचरण के लिए प्रेरित करना सम्प्रदाय कहलाता है.जैसे की हिन्दू ,जैन ,सिक्ख ,इसाई , आदि कई धर्म .
आज कल धर्म को गलत स्वरूप में देखा जाता है धर्म दो तरह से मार्ग पार चल कर समझा जा सकता है ज्ञानमार्गी और....जो व्यक्ति अपनी बुद्धि का प्रयोग करके धर्म का मर्म समझना चाहता है उसे शास्त्र वाचन ,पठन -पाठन करना चाहिए और शेष क्रियामार्गी उन्हें श्रद्धानुसार भगवंत के बताए मार्ग पर शंका रहित हो कर चलना चाहिए.
एक विशिष्ठ बुद्धि, विशिष्ठ ज्ञान वाला व्यक्ति ही किसी वस्तु के स्वरूप को जानना चाहता है एवं उसे समझने का प्रयत्न करता है। किन्तु विशिष्ठ बुद्धि वाले व्यक्ति बहुत ही कम संख्या में पाये जाते हैं। अतः परम उपकारी आचार्य भगवन्त ने सामान्य बुद्धि वाले व्यक्तियों को धर्म का स्वरूप पहले समझाने की अपेक्ष धर्म के प्रभाव को पहले समझाया है, ताकि वह धर्म के प्रभाव को देखकर उसमें श्रद्धा जागृत करें और अपनी आत्मा को कल्याण के मार्ग की और अग्रसर कर सकें। जब तक किसी भी वस्तु में हमें श्रद्धा नहीं होती तब तक हम उसे अच्छी तरह से समझ नहीं सकते। इसी बात को ध्यान में रखकर आचार्य भगवन्त ने धर्म का प्रभाव पहले बताया ताकि समस्त व्यक्ति धर्म के प्रभाव को जानकर धर्म के प्रति अपनी श्रद्धा जागृत कर सकें। यदि धर्म के प्रति एक बार श्रद्धा जागृत हो जाती है तथा दुर्लभ एवं अप्राप्त वस्तु भी सुलभ हो जाती है। इसलिये कहा गया है ‘‘धर्म दो धनार्धिनाम् प्रोक्ताः कामीनां सर्व कामदः’’ धर्म का मार्ग ही एक ऐसा सच्चा मार्ग है जिससे कि दुर्गम से दुर्गम स्थान पर पहुँचा जा सकता है
सामान्य बुद्धि वाले व्यक्ति को किसी वस्तु का स्वरूप समझने की अपेक्षा उस वस्तु के प्रभाव को समझने व देखने की इच्छा रहती है।
सामान्य बुद्धि वाले व्यक्तियों ने वस्तु के प्रभाव को यदि जान लिया है तो फिर वे वस्तु के स्वरूप को जानने के लिये इच्छुक ही नहीं रहते, उन्हें वस्तु के स्वरूप से कोई प्रयोजन ही नहीं रह जाता। जिस प्रकार एक बच्चा है, उसे यदि दूध पिलाया जाता है तो वह अपने सामान्य ज्ञान से यही प्रश्न कर पाता है कि यह वस्तु क्या है तथा इससे क्या होता है? उसे जब यह बता दिया जाता है कि यह दूध है और इसका सेवन करने से शरीर स्वस्थ रहता है। इतना बता देने पर बच्चा संतुष्ट हो जाता है। किन्तु यदि एक विवेक बुद्धि वाला बालक है बहुत तर्कशील एवं विचारशील बालक है तो वह इन सब बातों पर विचार करता है कि दूध कहाँ से आता है उसे यह पता लगने से कि दूध गाय या भैंस आदि जानवरों से प्राप्त होता है तब वह यह भी विचार करता है कि पशु जो केवल हरी घास खाते है, फिर इतना स्वच्छ दूध कैसे देते हैं? इस तरह के अनेक प्रश्नों पर वह विचार करके दूध के स्वरूप को पूर्णरूप से जानने का प्रयत्न करता है। बच्चों की बात तो दूर हमारे जीवन में प्रतिदिन उपयोग में आने वाली ऐसी कई वस्तुऐं जिनका हम प्रयोग तो कई बार करते हैं किन्तु उनका स्वरूप क्या है उस वस्तु का निर्माण किस प्रकार से हुआ है इसे जानने का प्रयत्न कभी नहीं करते।
हम केवल उसके उपयोग से ही सरोकार रखते हैं उनके बारे में हम विस्तृत जानकारी पाने के इच्छुक नहीं रहते और न ही सामान्य जन जीवन इन सब बातों को समझ सकता है
जिस प्रकार एक भयंकर शारीरिक पीड़ा से दुखी व्यक्ति एक अच्छे उच्च कोटी के डाक्टर की शरण को पाकर और यदि उस डाक्टर की रोगी के ऊपर कृपा हो जाये तो रोगी डाक्टर के प्रति श्रद्धावन्त होकर यह मन में विश्वास जागृत कर लेता है कि इनके द्वारा इलाज किये जाने पर में अवश्य ही स्वस्थ हो जाऊँगा, उसी प्रकार जिनेश्वर भगवान का धर्म भी धनवन्तरियों में श्रेष्ठ तथा किसी भी प्रकार के रोग से ग्रसित व्यक्ति को अवश्यमेव स्वस्थ बना देता है तथा उनकी मनोकामना पूर्ण कर देता है।
आचार्य भगवन्त कहते हैं कि धर्म सब कुछ दे सकता है किन्तु एक ही बात को स्वीकार करना पड़ेगा कि धर्म की शरण में आने वाले व्यक्ति को धर्म के प्रति श्रद्धा अवश्य जागृत करना पड़ेगी। केवल धर्म पर श्रद्धा करो धर्म का स्वरूप समझ में नहीं आवे उसकी चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं, धर्म का विषय समझने से पहले धर्म पर श्रद्धा रखकर धर्म करना आवश्यक है और यदि धर्म करना शुरू हो जाता है तब धर्म का स्वरूप आसानी से समझ में आ सकता है।
धर्म का स्वरूप समझना क्यों आवश्यक है, धर्म का यदि स्वरूप समझ में नहीं आया, धर्म क्या है, यह किन व्यक्तियों या विद्वानों द्वारा चलाया हुआ बताया हुआ मार्ग है, ऐसे मार्ग को बताने वाले का वास्तविक जीवन किस प्रकार का होता है ये सब बाते यदि व्यक्ति के मस्तिष्क में स्पष्ट नहीं होती है तो वह व्यक्ति अपने गंतव्य से दूर भटक जाता है।
श्रोता दो प्रकार के होते हैं कुछ श्रद्धा प्रधान कुछ बुद्धि प्रधान। श्रद्धा प्रदान व्यक्ति धर्म के प्रति अपनी आस्था रखते हैं तथा उनके लिये महापुरूषों के वचन ही पर्याप्त है। महापुरूषों त्यागी मुनिराज के कहे हुए वचनों में उन्हें तिल मात्र भी शंका नहीं रहती और ऐसे लोग महापुरूषों के वचनों को ग्रहण कर उन्हें अपने व्यवहार में उतार कर अपनी आत्मा को कल्याण के मार्ग की ओर ले जाने का प्रयत्न करते हैं।
इसे समझने के लिए अगली कड़ी में चर्चा को आगे बढ़ाते है तब तक अल्प विराम .............................

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