बनी रहे बुज़ुर्गों के प्रति श्रध्दा और अनुराग;उनकी दुआओं से ही जागते हैं हमारे भाग.

शुक्रवार, 30 दिसंबर 2011

happy b 'day


HAPPY BIRTHDAY TO U DADU

WE ALL LOVE U,

MISS U

CELEBRATING YOUR 65th B’DAY

IN YOUR ABSENSE.AS YOU LIKE CELEBRATING YOUR B’DAY

NOW , I AM DELIVARING A POEM TO MY DADU….

I am just eleven,
And already you are gone to heaven.

The smiles, the laughter,
I'll remember forever.

We would spend days in your rocking chair,
With your fingers going through my hair.

When I was just about two,
You gave me my favorite teddy, Nou-Nou.

Now when I lay my head at night,
I pray and wish that you were still by my sight.

I love you with all my heart,
And that will never fall apart.

I love you,
I admire you...

But most of all...
I miss you.

01-01-1947

(dadu ki ghotu)

mini (prayukti jain)


बुधवार, 21 सितंबर 2011

राजस्थान के जैन तीर्थ: एक भावभूमि


हर् इन्सान ख्वाब देखता है कुछ ह्क़ीकत बन जाते है तो कुछ अधूरे सपनें बन जाते है ऐसा ही एक ख्वाब पापा की फाईलों में यात्रा संस्मरण की हस्तलिखित पान्डुलिपि के रुप में सुरक्षित मिला.... सन 1973 के समय के परिवेश, संसाधन, और दिनचर्या का सुन्दर उदाहरण है यह "यात्रा संस्मरण" । आज के समय में जब हम पलक झपकते ही कहीं भी पहुचं जाते है,फ़ेसबुक ,टिवटर ,3जी,के इस दौर में यह संस्मरण आपको "ब्लेक एन्ड व्हाइट टीवी" की याद दिला सकता है "विकिपीडिया" के इस युग में कोई भी जानकारी बस एक क्लिक पर हाज़िर है तब इसे देखकर लगता है कि उस जमाने में इसी तरह की पुस्तकें लिख कर जिज्ञासुओं के लिए जानकारी उपलब्ध कराई जाती थी 7 श्रंखलाबद्ध कड़ियों का यह सस्मरण बड़ा जरुर लग सकता है, पर इसकी मूल भावना को यथावत रखने के लिए यह आवश्यक है केशरियाजी पहुचनें तक रास्ते में आने वाले तीर्थों उदयपुर,केशरियाजी,राणकपुर महावीर मुछाला,नारलोई,नाडोल,वरकाणा,चित्तौड जैसे नगर तक की यात्रा के विवरण, यात्रा में आने वाले व्यय पत्रक का अन्त में विवरण के साथ तीर्थयात्रा के मह्त्व, साथ इस संस्मरण को प्रारंभ किया गया है,इसे देखकर मह्सूस होता है कि प्रकाशित करने के लिए ही लिखा गया था.हो सकता है इसे पोस्ट के रुप में जारी कर पापा का ख्वाब ह्क़ीकत में बदल जाए। तो बिना किसी अन्य भूमिका के इसे जारी करती हूँ :

।।श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथाय नमः।।


नामाकृति द्रव्य भावैः, पुनतस्त्रिजगज्जनम्।

क्षेत्रे काले च सर्व्वस्मिन्नर्हतः समुपास्महै।।

समस्त लोकों और सब काल में अरिहन्त परमात्मा तीर्थंकर देव जगत के प्राणियों को पवित्र करते हैं। सभी क्षेत्रों और सब काल में अरिहन्त परमात्मा का प्रभाव व्याप्त है उनके नाम, आकृति, द्रव्य और भाव इन चार निक्षेपों द्वारा तीर्थंकर परमात्मा का प्रभाव अनुभव किया जा सकता है। इन चार निक्षेपों में आकृति (स्थापना) निक्षेप का अत्यधिक महत्व है। संसार में कई स्थानों पर स्थापना एवं आकृति के प्रभाव को ज्ञात करने के लिए पवित्र तीर्थस्थल परमात्मा प्रभाव के प्रमाण रूप में बने हुए हैं। हज़ारों वर्षों के परमात्मा प्रभाव से इन क्षेत्रों तीर्थ स्थानों की महत्ता है और भविष्य में भी बनी रहेगी। क्योंकि आकृति निक्षेप के रूप में परमात्म का प्रभाव प्राणियों को सभी काल में पवित्र करेगा। आकृति (स्थापना) निक्षेप के रूप में लाखों आत्माएँ पवित्र हुई हैं। तीर्थयात्रा के माध्यम से व्यक्ति परमात्म प्रभाव का अनुभव करता है। इसलिये तीर्थयात्रा को मानव जीवन का महत्वपूर्ण कर्तव्य बताया है। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में इस कर्तव्य को पूर्ण करने का समय आता है। ऐसा हो सकता है कि किसी व्यक्ति के जीवन में यह समय जल्दी आ जाए और किसी के जीवन में देर से। हमारे जीवन में भी यह कर्तव्य निभाने का एक सुवर्ण अवसर आया। पू. गुरूदेव के समाचारों के अनुसार उचित समय पर पहुँचने की तैयारियाँ की गईं।

पूज्य मुनिराज श्री भद्रगुप्त विजयजी महाराज सा. का एक पत्र हमें प्राप्त हुआ जिसमें लिखा था पू.मु. श्री भद्रगुप्त विजयजी म.सा. को 25 जनवरी 1974 कोधर्मप्रभावककी विशिष्ट पदवी से अलंकृत किया जावेगा अतः उपस्थिति आवश्यक है। अपने अन्य साथियों की बात तो मैं नहीं करूंगा किंतु जहाँ तक मेरा प्रश्न है, जीवन में तीर्थयात्रा का क्रम पू. गुरूदेव की प्रेरणा से प्रारम्भ होता है। उन्हीं की प्ररेणा से सर्वप्रथम ‘‘प्रकट प्रभावी श्री शंखेश्वर जी’’ की तीर्थ यात्रा करने का अवसर प्राप्त हुआ था। अपने जीवन की यह पहली तीर्थयात्रा थी। बहुत समय पहले जब तीर्थयात्रा का महत्व नहीं समझा था श्री सिद्धाचल जी की यात्रा करने का अवसर मिला था किंतु उस समय तीर्थ और तीर्थयात्रा के बारे में कोई विशेष अनुभव नहीं था। तीर्थयात्रा पर जाने वाले हम तीन यात्री थे, श्री शुभकरणजी कौचरसा, श्री सुरेशचंद्रजी भंडारी और मैं स्वयं.

पवित्र तीर्थ केशरियाजी के साथ-साथ आसपास के अन्य तीर्थों के दर्शनों का भी कार्यक्रम रखा गया। इसमें प्रमुखतः श्री केशरियाजी उदयपुर, श्री राणकपुर, सादड़ी, घाणेरावजी, मुछाला महावीरजी, नारलोई, नाड़ोल, बरकाण, कांकरोलीजी एवं करेड़ा पर्श्वनाथ जी तीर्थों के दर्शन का लाभ लेना था। इन सब तीर्थों के दर्शन करने के लिए कुल चार दिन का कार्यक्रम था किंतु इस क्रम को पूरा करने के लिए साढ़े पांच दिन लग गये। जो भी हो; कार्यक्रम व्यवस्थित रहा। अपनी-अपनी व्यवस्था की और वह शुभ समय आया जब माह वदी अमावस के दोपहर हम अपने लक्ष्य को पूर्ण करने के लिये चल दिये।

आगे भी कुछ कड़ियों में राजस्थान के जैन तीर्थों की शब्द यात्रा का ये सिलसिला जारी रहेगा.हो सके तो इसे नई पीढ़ी के साथ ज़रूर साझा करें.


शुक्रवार, 2 सितंबर 2011

धर्म के सागर का एक धर्म बिन्दु भाग-3 (अन्तिम किश्त)

हम किसे धर्म कहे? क्या विचार, आचार, भाव एवं व्यवहार को? धर्म के बाजार में यह निर्णय करना बहुत कठिन हो जाता है। किसी बात का निर्णय दो रीतियों से होता है, या तो अपनी बुद्धि से स्वयं निर्णय करें या फिर जिसमें स्वयं निर्णय करने की क्षमता नहीं है ऐसे व्यक्ति ने, कुछ सूक्ष्म बुद्धि वाले व्यक्तियों द्वारा लिये गये निर्णय को श्रद्धा पूर्वक मान लेना चाहिये।

हमें हिसाब-किताब बही-चौपड़ा लिखना नहीं आता है तो या तो स्वयं चौपडा लिखना सीखे या फिर नौकरी पर रखे मुनीम ने जो कुछ लिखा है उस पर श्रद्धा और विश्वास करो कि इसने हिसाब सही लिखा होगा। बाद में उसमें शंका करने की आवश्यकता नहीं। जिस व्यक्ति के पास कार है पर ड्राइविंग नहीं आती है तो वह स्वयं सीखे या जो ड्रायवर रखा है उस पर विश्वास रखे कि यह व्यक्ति कार सही ढंग से चला कर मुझे अपने गन्तव्य तक पहुँचाएगा।

धर्म के दो स्वरूप :- धर्म के मुख्य रूप से दो स्वरूप है एक अन्तर एवं दूसरा बाह्य। वास्तविक धर्म की प्राप्ती के लिये मनुष्य को स्वयं की अंतर आत्मा में, स्वयं के हृदय में झाँक कर, अन्दर घुसकर देखना पड़ेगा। सज्जन पुरूष परिपूर्ण धर्म करने का दावा कभी नहीं करेगा, तुच्छ बुद्धि वाला व्यक्ति ही बाहरी क्रिया को देखकर निर्णय कर ले, किन्तु बुद्धिमान मनुष्य कभी इस प्रकार का निर्णय नहीं करेगा। ‘‘वचनाव्यिक अनुष्ठानं’’ जिनेश्वर भगवान के वचन को सुनकर उसके अनुसार जो अनुष्ठान, जो क्रियाऐं की जाती है वह धर्म का बाह्य रूप है। जिन-वचन ही उपादेय एवं अनुशरणीय है। जिन-वचन शब्द में दो बाते है जिन एवं वचन जिन शब्द जीत शब्द से बना है। जिन कौन है? जिन्होंने सबको जीत लिया है। किसको जीत लिया है? दूसरे राज्य के राजा इत्यादि को नहीं, अनन्त जन्मों से हमारी अन्तर भूमि में बैठ जाने वाले हमारे अन्तः स्थल को अपना अड्डा बनाये रखने वाले राग, द्वेष, काम, क्रोध, माया, लोभ इत्यादि दुर्गुणों को अन्तरंग से बाहर खदेड़ कर उन्हें पछाड़-पछाड़ कर नष्ट करके ऊपर जिसने विजय पाई वही जिन ही वही जिनेश्वर है और ऐसी ही आत्मा द्वारा कहे हुए वचन जिन-वचन है आदरणीय श्रद्धेय है वे ही वचन हमारे लिये लोक माया राग के दो रूप है। क्रोध अभिमान, द्वेष के ही दो रूप है राग और द्वेष इन दोनो प्रमुख दुर्गुणों का जब तक किसी आत्मा से निष्काषन नहीं होता, जिसके हृदय से जब तक ये दोनो दुर्गुण नहीं निकलते तब तक वह व्यक्ति वास्तविक धर्म की शरण को किसी भी प्रकार से नहीं प्राप्त कर सकता है।