बनी रहे बुज़ुर्गों के प्रति श्रध्दा और अनुराग;उनकी दुआओं से ही जागते हैं हमारे भाग.

बुधवार, 31 अगस्त 2011

धर्म के सागर का एक धर्म बिन्दु

पिछली चर्चा का शेष भाग -2

बुद्धि प्रधान व्यक्ति :- कुछ व्यक्ति बुद्धि प्रधान होते हैं वे अपनी बुद्धि के सहारे प्रत्येक बात का मापन करते हैं बुद्धि प्रधान में भी दो तरह की बुद्धि वाले व्यक्ति होते हैं कुछ तो अपनी बुद्धि से तत्व ज्ञान को प्राप्त करना चाहते है, तत्व ज्ञान को वे अपने ज्ञान के अनुसार ही जानते हैं अर्थात कई प्रकार के तर्क वितर्कों से साफ कर के तत्व ज्ञान को ग्रहण करते हैं तथा कुछ व्यक्ति आधार हीन तर्क वितर्क करके केवल अपनी बुद्धि का प्रदर्शन करना चाहते हैं।तर्क-वितर्क के सहारे तत्व का निर्माण करने और उस पर चलने की अपेक्षा इस चक्कर में इस प्रकार फंस जाता है जिस प्रकार एक पक्षी किसी जाल में फंस जाता है और उसमें से किसी भी प्रकार से नहीं निकल पाता।तर्क में, वाद-विवाद में गति अवश्य है किन्तु प्रगति नहीं और प्रगति के बिना तत्व का निर्णय नहीं हो सकता। तर्कशील एवं बुद्धि प्रधान प्राणी किसी भी निर्णय पर नहीं पहुँच सकता है क्योंकि तर्क में गति तो है किन्तु वह हमें सगति नहीं देता। तर्कशील व्यक्ति की वैसी ही स्थिति होती है जैसी स्थिति कोल्हू के बैल की होती है, वह बैल सुबह से लेकर शाम तक चलता है गति तो उसमें बहुत है, किन्तु प्रगति कुछ नहीं, बैल कहाँ तक पहुँचता है कहीं नहीं वहीं के वहीं जहाँ सुबह खड़ा था। इतना परिश्रम करने, इतने चलने के बाद भी शाम को वहीं के वहीं नजर आता है। इसी प्रकार तर्कशील व्यक्ति प्रगति के पथ पर अग्रसर नहीं हो पाता है उसकी स्थिति जैसी की तैसी बनी रहती है। जिस प्रकार बेहोश व्यक्ति अर्थहीन बातें करता रहता है तथा जिसका उत्तर नहीं दिया जाता है उसी प्रकार संसार में राग, द्वेष, मोह, माया आदि से भटक रहे जीव तर्क के सहारे बड़बड़ाते रहते हैं। किसी भी प्रकार के नशे में चूर व्यक्ति सही प्रश्न नहीं कर सकता और न किसी प्रकार की सही बात कर पाता है तो संसार के समस्त दुखों से ग्रसित लोग किसी बात को ठीक ढंग से समझ नहीं पाते हैं।

यशो न विद्या न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः।

ते मृत्युलोके भुविभार भूताः मनुष्य रूपेण मृगाश्चरन्ति।।

जिस व्यक्ति के जीवन में विद्या, तप, दान, नम्रता तथा धर्म के गुणों का थोड़ा भी विकास नहीं हुआ है ऐसे व्यक्ति जंगल के मृग के रूप में इस पृथ्वी पर बोझ बने हुए है, ऐसे व्यक्ति के रहने से पृथ्वी भी अपने आप पर अधिक वजन का आभास करती है।

आज के समय में हमें धर्म का स्वरूप समझना इसलिये आवश्यक है कि संसार भिन्न-भिन्न प्रकार के धर्म तथा दर्शनों से भरा पड़ा है। एक अपरिचित एवं धर्म से बिलकुल अनभिज्ञ व्यक्ति यदि किसी धर्म की शरण को स्वीकार करना चाहता है किसी अच्छे से अच्छे धर्म को अपनाना चाहता है तो उसे सत्य और असत्य, अच्छे और बुरे को पहचानने की बुद्धि तो होनी ही चाहिये, यदि व्यक्ति के पास इस प्रकार का ज्ञान नहीं है तो वह भटक जायेगा।धर्म सूक्ष्म बुद्धि साहस’’ सूक्ष्म से सूक्ष्म बुद्धिवाला व्यक्ति ही धर्म को ग्रहण कर पाता है। व्यक्ति में सत्य और असत्य का निर्णय करने की बुद्धि स्वयं में होनी चाहिये, यदि उसके पास इस प्रकार का निर्णय करने की बुद्धि है तो वह वास्तविक धर्म का मार्ग अपना कर आगे बढ़ सकता है।

अनन्त उपकारी श्रमण भगवान महावीर की शरण में धर्म प्रधान व्यक्तियों का महत्व नहीं था उनके शासन में तो जो धन के प्रति पूर्ण बैरागी एवं धर्म के प्रति पूर्ण रूप से श्रद्धावन्त हो ऐसे व्यक्तियों का महत्व था। आज हमारे धर्म में इस प्रकार की स्थिति है कि इतने नैतिक दृष्टि से गिरे हुए व्यक्ति आगे आकर नेतृत्व करते हैं। धर्म व संस्कृति में गिरावट एवं इनके प्रति निष्ठा हट जाने का मुख्य कारण व्यक्तियों में सूक्ष्म बुद्धि का अभाव है। धर्म का वास्तविक स्वरूप क्या है, इसके क्या सिद्धांत है उन सबको बुद्धि की कसौटी पर पूर्णरूप से परख कर के एक जौहरी की तरह जाँच करके ही अनुशरण करना चाहिये अन्यथा हमें इसी काल में हमेशा हमेशा के लिय परिभ्रमण करना पड़ेगा तथा इससे मुक्त होने का मार्ग कठिन से कठिन परिश्रम करने के पश्चात भी प्राप्त नहीं हो सकेगा। निरन्तर…

धर्म के सागर का एक धर्म बिन्दु


पिछली चर्चा का शेष भाग

बुद्धि प्रधान व्यक्ति :- कुछ व्यक्ति बुद्धि प्रधान होते हैं वे अपनी बुद्धि के सहारे प्रत्येक बात का मापन करते हैं बुद्धि प्रधान में भी दो तरह की बुद्धि वाले व्यक्ति होते हैं कुछ तो अपनी बुद्धि से तत्व ज्ञान को प्राप्त करना चाहते है, तत्व ज्ञान को वे अपने ज्ञान के अनुसार ही जानते हैं अर्थात कई प्रकार के तर्क वितर्कों से साफ कर के तत्व ज्ञान को ग्रहण करते हैं तथा कुछ व्यक्ति आधार हीन तर्क वितर्क करके केवल अपनी बुद्धि का प्रदर्शन करना चाहते हैं।तर्क-वितर्क के सहारे तत्व का निर्माण करने और उस पर चलने की अपेक्षा इस चक्कर में इस प्रकार फंस जाता है जिस प्रकार एक पक्षी किसी जाल में फंस जाता है और उसमें से किसी भी प्रकार से नहीं निकल पाता।तर्क में, वाद-विवाद में गति अवश्य है किन्तु प्रगति नहीं और प्रगति के बिना तत्व का निर्णय नहीं हो सकता। तर्कशील एवं बुद्धि प्रधान प्राणी किसी भी निर्णय पर नहीं पहुँच सकता है क्योंकि तर्क में गति तो है किन्तु वह हमें सगति नहीं देता। तर्कशील व्यक्ति की वैसी ही स्थिति होती है जैसी स्थिति कोल्हू के बैल की होती है, वह बैल सुबह से लेकर शाम तक चलता है गति तो उसमें बहुत है, किन्तु प्रगति कुछ नहीं, बैल कहाँ तक पहुँचता है कहीं नहीं वहीं के वहीं जहाँ सुबह खड़ा था। इतना परिश्रम करने, इतने चलने के बाद भी शाम को वहीं के वहीं नजर आता है। इसी प्रकार तर्कशील व्यक्ति प्रगति के पथ पर अग्रसर नहीं हो पाता है उसकी स्थिति जैसी की तैसी बनी रहती है। जिस प्रकार बेहोश व्यक्ति अर्थहीन बातें करता रहता है तथा जिसका उत्तर नहीं दिया जाता है उसी प्रकार संसारा में राग, द्वेष, मोह, माया आदि से भटक रहे जीव तर्क के सहारे बड़बड़ाते रहते हैं। किसी भी प्रकार के नशे में चूर व्यक्ति सही प्रश्न नहीं कर सकता और न किसी प्रकार की सही बात कर पाता है तो संसार के समस्त दुखों से ग्रसित लोग किसी बात को ठीक ढंग से समझ नहीं पाते हैं।

यशो न विद्या न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः।

ते मृत्युलोके भुविभार भूताः मनुष्य रूपेण मृगाश्चरन्ति।।

जिस व्यक्ति के जीवन में विद्या, तप, दान, नम्रता तथा धर्म के गुणों का थोड़ा भी विकास नहीं हुआ है ऐसे व्यक्ति जंगल के मृग के रूप में इस पृथ्वी पर बोझ बने हुए है, ऐसे व्यक्ति के रहने से पृथ्वी भी अपने आप पर अधिक वजन का आभास करती है।

आज के समय में हमें धर्म का स्वरूप समझना इसलिये आवश्क है कि संसार भिन्न-भिन्न प्रकार के धर्म तथा दर्शनों से भरा पड़ा है। एक अपरिचित एवं धर्म से बिलकुल अनभिज्ञ व्यक्ति यदि किसी धर्म की शरण को स्वीकार करना चाहता है किसी एक अच्छे से अच्छे धर्म को अपनाना चाहता है तो उसे सत्य और असत्य, अच्छे और बुरे को पहचानने की बुद्धि तो होनी ही चाहिये, यदि व्यक्ति के पास इस प्रकार का ज्ञान नहीं है तो वह भटक जायेगा।धर्म सूक्ष्म बुद्धि साहस’’ सूक्ष्म से सूक्ष्म बुद्धिवाला व्यक्ति ही धर्म को ग्रहण कर पाता है। व्यक्ति में सत्य और असत्य का निर्णय करने की बुद्धि स्वयं में होनी चाहिये, यदि उसके पास इस प्रकार का निर्णय करने की बुद्धि है तो वह वास्तविक धर्म का मार्ग अपना कर आगे बढ़ सकता है।

अनन्त उपकारी श्रमण भगवान महावीर की शरण में धर्म प्रधान व्यक्तियों का महत्व नहीं था उनके शासन में तो जो धन के प्रति पूर्ण बैरागी एवं धर्म के प्रति पूर्ण रूप से श्रद्धावन्त हो ऐसे व्यक्तियों का महत्व था। आज हमारे धर्म में इस प्रकार की स्थिति है कि इतने नैतिक दृष्टि से गिरे हुए व्यक्ति आगे आकर नेतृत्व करते हैं। धर्म व संस्कृति में गिरावट एवं इनके प्रति निष्ठा हट जाने का मुख्य कारण व्यक्तियों में सूक्ष्म बुद्धि का आभाव है। धर्म का वास्तविक स्वरूप क्या है, इसके क्या सिद्धांत है उन सबको बुद्धि की कसौटी पर पूर्णरूप से परख कर के एक जौहरी की तरह जाँच करके ही अनुशरण करना चाहिये अन्यथा हमें इसी काल में हमेशा हमेशा के लिय परिभ्रमण करना पड़ेगा तथा इससे मुक्त होने का मार्ग कठिन से कठिन परिश्रम करने के पश्चात भी प्राप्त नहीं हो सकेगा। ्निरन्तर

रविवार, 28 अगस्त 2011

धर्म के सागर का एक धर्म बिन्दु

पीढ़ी का अंतर तो था ही साथ ही आधुनिक परिवेश का भी असर मुझ पर था .धर्म के स्वरूप को लेकर तो ,कभी धार्मिक मान्यताओं को लेकरकई बार पिताजी से चर्चा रूपी बहस हो जाया करती थी ,इस विषय पर उनके लिखे कुछ दस्तावेजों सार इस ब्लॉग के माध्यम से बार लिखा है .धर्म को परिभाषित करते हुए वे कहते की धर्म को समझने के लिए एक मार्ग बनाया गया है उस पर चलते हुए ही उसे समझा जा सकता है न की पार खड़े रहकर धर्म की गहराई को नापा जा सकता है





धर्म या मत या सम्प्र्यदाय हर व्यक्ति विशेष के लिए अलग -अलग अर्थ रखता है ,धर्म अर्थात आचरण ,सामूहिक रूप से एक समुदाय का समान आचरण करना,या समुदाय को इस आचरण के लिए प्रेरित करना सम्प्रदाय कहलाता है.जैसे की हिन्दू ,जैन ,सिक्ख ,इसाई , आदि कई धर्म .
आज कल धर्म को गलत स्वरूप में देखा जाता है धर्म दो तरह से मार्ग पार चल कर समझा जा सकता है ज्ञानमार्गी और....जो व्यक्ति अपनी बुद्धि का प्रयोग करके धर्म का मर्म समझना चाहता है उसे शास्त्र वाचन ,पठन -पाठन करना चाहिए और शेष क्रियामार्गी उन्हें श्रद्धानुसार भगवंत के बताए मार्ग पर शंका रहित हो कर चलना चाहिए.
एक विशिष्ठ बुद्धि, विशिष्ठ ज्ञान वाला व्यक्ति ही किसी वस्तु के स्वरूप को जानना चाहता है एवं उसे समझने का प्रयत्न करता है। किन्तु विशिष्ठ बुद्धि वाले व्यक्ति बहुत ही कम संख्या में पाये जाते हैं। अतः परम उपकारी आचार्य भगवन्त ने सामान्य बुद्धि वाले व्यक्तियों को धर्म का स्वरूप पहले समझाने की अपेक्ष धर्म के प्रभाव को पहले समझाया है, ताकि वह धर्म के प्रभाव को देखकर उसमें श्रद्धा जागृत करें और अपनी आत्मा को कल्याण के मार्ग की और अग्रसर कर सकें। जब तक किसी भी वस्तु में हमें श्रद्धा नहीं होती तब तक हम उसे अच्छी तरह से समझ नहीं सकते। इसी बात को ध्यान में रखकर आचार्य भगवन्त ने धर्म का प्रभाव पहले बताया ताकि समस्त व्यक्ति धर्म के प्रभाव को जानकर धर्म के प्रति अपनी श्रद्धा जागृत कर सकें। यदि धर्म के प्रति एक बार श्रद्धा जागृत हो जाती है तथा दुर्लभ एवं अप्राप्त वस्तु भी सुलभ हो जाती है। इसलिये कहा गया है ‘‘धर्म दो धनार्धिनाम् प्रोक्ताः कामीनां सर्व कामदः’’ धर्म का मार्ग ही एक ऐसा सच्चा मार्ग है जिससे कि दुर्गम से दुर्गम स्थान पर पहुँचा जा सकता है
सामान्य बुद्धि वाले व्यक्ति को किसी वस्तु का स्वरूप समझने की अपेक्षा उस वस्तु के प्रभाव को समझने व देखने की इच्छा रहती है।
सामान्य बुद्धि वाले व्यक्तियों ने वस्तु के प्रभाव को यदि जान लिया है तो फिर वे वस्तु के स्वरूप को जानने के लिये इच्छुक ही नहीं रहते, उन्हें वस्तु के स्वरूप से कोई प्रयोजन ही नहीं रह जाता। जिस प्रकार एक बच्चा है, उसे यदि दूध पिलाया जाता है तो वह अपने सामान्य ज्ञान से यही प्रश्न कर पाता है कि यह वस्तु क्या है तथा इससे क्या होता है? उसे जब यह बता दिया जाता है कि यह दूध है और इसका सेवन करने से शरीर स्वस्थ रहता है। इतना बता देने पर बच्चा संतुष्ट हो जाता है। किन्तु यदि एक विवेक बुद्धि वाला बालक है बहुत तर्कशील एवं विचारशील बालक है तो वह इन सब बातों पर विचार करता है कि दूध कहाँ से आता है उसे यह पता लगने से कि दूध गाय या भैंस आदि जानवरों से प्राप्त होता है तब वह यह भी विचार करता है कि पशु जो केवल हरी घास खाते है, फिर इतना स्वच्छ दूध कैसे देते हैं? इस तरह के अनेक प्रश्नों पर वह विचार करके दूध के स्वरूप को पूर्णरूप से जानने का प्रयत्न करता है। बच्चों की बात तो दूर हमारे जीवन में प्रतिदिन उपयोग में आने वाली ऐसी कई वस्तुऐं जिनका हम प्रयोग तो कई बार करते हैं किन्तु उनका स्वरूप क्या है उस वस्तु का निर्माण किस प्रकार से हुआ है इसे जानने का प्रयत्न कभी नहीं करते।
हम केवल उसके उपयोग से ही सरोकार रखते हैं उनके बारे में हम विस्तृत जानकारी पाने के इच्छुक नहीं रहते और न ही सामान्य जन जीवन इन सब बातों को समझ सकता है
जिस प्रकार एक भयंकर शारीरिक पीड़ा से दुखी व्यक्ति एक अच्छे उच्च कोटी के डाक्टर की शरण को पाकर और यदि उस डाक्टर की रोगी के ऊपर कृपा हो जाये तो रोगी डाक्टर के प्रति श्रद्धावन्त होकर यह मन में विश्वास जागृत कर लेता है कि इनके द्वारा इलाज किये जाने पर में अवश्य ही स्वस्थ हो जाऊँगा, उसी प्रकार जिनेश्वर भगवान का धर्म भी धनवन्तरियों में श्रेष्ठ तथा किसी भी प्रकार के रोग से ग्रसित व्यक्ति को अवश्यमेव स्वस्थ बना देता है तथा उनकी मनोकामना पूर्ण कर देता है।
आचार्य भगवन्त कहते हैं कि धर्म सब कुछ दे सकता है किन्तु एक ही बात को स्वीकार करना पड़ेगा कि धर्म की शरण में आने वाले व्यक्ति को धर्म के प्रति श्रद्धा अवश्य जागृत करना पड़ेगी। केवल धर्म पर श्रद्धा करो धर्म का स्वरूप समझ में नहीं आवे उसकी चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं, धर्म का विषय समझने से पहले धर्म पर श्रद्धा रखकर धर्म करना आवश्यक है और यदि धर्म करना शुरू हो जाता है तब धर्म का स्वरूप आसानी से समझ में आ सकता है।
धर्म का स्वरूप समझना क्यों आवश्यक है, धर्म का यदि स्वरूप समझ में नहीं आया, धर्म क्या है, यह किन व्यक्तियों या विद्वानों द्वारा चलाया हुआ बताया हुआ मार्ग है, ऐसे मार्ग को बताने वाले का वास्तविक जीवन किस प्रकार का होता है ये सब बाते यदि व्यक्ति के मस्तिष्क में स्पष्ट नहीं होती है तो वह व्यक्ति अपने गंतव्य से दूर भटक जाता है।
श्रोता दो प्रकार के होते हैं कुछ श्रद्धा प्रधान कुछ बुद्धि प्रधान। श्रद्धा प्रदान व्यक्ति धर्म के प्रति अपनी आस्था रखते हैं तथा उनके लिये महापुरूषों के वचन ही पर्याप्त है। महापुरूषों त्यागी मुनिराज के कहे हुए वचनों में उन्हें तिल मात्र भी शंका नहीं रहती और ऐसे लोग महापुरूषों के वचनों को ग्रहण कर उन्हें अपने व्यवहार में उतार कर अपनी आत्मा को कल्याण के मार्ग की ओर ले जाने का प्रयत्न करते हैं।
इसे समझने के लिए अगली कड़ी में चर्चा को आगे बढ़ाते है तब तक अल्प विराम .............................

रविवार, 21 अगस्त 2011

पाप के विसर्जन का पावन पर्व पर्युषण


यह ब्लॉग पूज्य पिता श्री जयंतीलालजी जैन को श्रध्दांजलि के साथ उनके शब्द-संसार से आपको परिचित करवाना और उनके सुकार्यों का दस्तावेज़ीकरण करना है. पर्युषण महापर्व अनक़रीब है और इसी को ध्यान में रखते हुए आज जारी कर रही हूँ १ अगस्त २००९ को लिखा गया उनका एक लेख इसी पावन पर्व की भावभूमि पर. समय बदल जाता है,परिवेश और हमारा जीवन-चिंतन भी.नहीं बदलते तो हमारे वे शाश्वस्त सत्य जो भगवान महावीर की वाणी के रूप में हम संसारियों तक पहुँचते रहे हैं. एक सुश्रावक,चिंतक और लेखक के रूप में पिताजी की यह मीमांसा धर्म और अध्यात्म की भावभूमि को अत्यंत सरलता से अभिव्यक्त कर रही है.





क्षेत्र और काल की यह विशेषता है कि वैश्विक भौतिक समृद्धि की दौड़ में भारत देश आज भी योग और पर्व प्रधान है .इस देश की माटी के कण- कण में पर्वों के माध्यम से धर्म समाया हुआ है .सृष्टि विनाश के विध्वंसक उपकरण तैयार करने की अपेक्षा परस्पर प्रेम,दान दया सदाचार और अहिंसा की सीढ़ी से परमात्म भक्ति के मार्ग के सहारे मोक्ष तक पहुंचना भारतीय संस्कृति का प्रमुख धेय रहा है चिंतन की चांदनी यहाँ सर्वदा प्रवाहमान होती रहती है जिसमें पर्युषण महापर्व का विशेष महत्व है.

परी +उषण =पर्युषण परी अर्थात चारों और से ,तथा उषण यानि बसना ,स्थिर रहना .क्रोध ,मान और लोभ के दरवाज़े बंद करके अपनी आत्मा के पास रहने का नाम है पर्युषण ..प र और व् शब्द प से पाप ,र से रग -रग और व से विसर्जन ..जो पाप को रग रग से विसर्जित करा दे वही पर्व है स्व में रमण करते हुए आत्मा के वास्तविक रूप व लक्षण धर्मों को पहचानना ही पर्युषण है
- महापर्व के पावन ८ दिनों में करने लायक ११ विशेष कर्तव्यों का पालन करने जिनमें १ ..तपश्चर्या
२ सुपात्र दान , ३ दया ,४ दान ,५ अमारी प्रवर्तन (अहिंसा पालन )६ परमात्म पूजन ,७ पौषध,
८ सामायिक ,९ प्रतिक्रमण ,१० चेत्य परिपाटी ,११प्रभु भक्ति आदि प्रमुख विषयों पर विस्तारपूर्वक व्याख्या
कर उपदेशित किया जाता है

- पौषध व्रत में रहकर साधू मार्ग ,उसकी दिनचर्या बिताने के विशेष कर्तव्य के साथ
- तीर्थंकर परमात्मा के जीवन चरित्र के साथ च्यवन ,जन्म दीक्षा ,केवलज्ञान एवं निर्वाण कल्याणक
(पञ्च कल्याणक )
- साधु समाचारी का विस्तृत वर्णन बताया जाता है
- ग्रंर्थों ,शास्त्र श्रवण और तपोमय क्रियाओं के माध्यम से मन की चंचलता और क्रोध को कम करने
का प्रयास किया जाता है
महापर्व का सबसे प्रमुख दिवस क्षमापना दिवस है जिसे संवत्सरी भी कहते है संवत्सरी अर्थात वर्ष भर में एक बार इस दिन श्रावक वर्ष भर में मन वचन काया से किये गए पापों की ,जाने अनजाने हुई ग़लतियों की क्षमा मागतें है एवं दूसरों को क्षमा करते भी है जीवन में क्षमाशीलता का गुण आ जाने पर मनुष्य दु:ख देनें वालों से भी प्रेम कर स्वयं को सुखद महसूस करता है ध्यान रहे ; अहिंसा ,सत्य ,अस्तेय,ब्रह्मचर्य,असंग्रह या अपरिग्रह का पालन करना मुख्य है

इस प्रकार पर्वाधिराज पर्युषण महापर्व का सही आराधक आत्मिक गुणों को विकसित करते हुए आत्मोत्थान के उच्च शिखर पर प्रतिष्ठित हुए बिना नहीं रहता .प्रभु हमें भी ऐसे पर्व को सरल ह्रदय से आत्मसात कर क्रोध को शांत करने के प्रयास करते - करते वीर और क्षमाशील बनने की शक्ति प्रदान करें ....

(इस पोस्ट पर लिया गया चित्र पालीताणा तीर्थ क्षेत्र का है)


बुधवार, 3 अगस्त 2011

नसीहतों का समंदर थे पापा…










पापा के साथ हर शाम अच्छी ही गुज़रती थी क्योंकि पापा के ऑफिस से आने के बाद का सारा समय हमारा होता था .पापा हम बच्चों के साथ बच्चे बन जाते,और खूब मस्ती करते ,कहीं -कहीं उनकी डायरी के पन्नों पर सिर्फ यही लिखा है ....

१२.४.७८.

प्रात:जागृति ४.३० बजे .

नित्य कर्म से निवृत्ति ,तत्पश्चात पूजन और

साराsssssssssss दिन 'घोटू बा' के संग शाम अतीव आनंद प्राप्ति .

रात्रि विश्रांति ये 'घोटू बा कभी बेटी के रूप में ,कभी बेटे के रूप में ,

कभी पोती के रूप में कभी पड़ोस के बच्चों तो कभी कभी जानवरों के बच्चों के रूप बनते जाते .

एक बार का किस्सा याद है उन दिनों इंदौर इतना फैला नहीं था एरोड्रुम रोड पर मोर ,बन्दर दिख जाते थे बारिश में घरों की छत पर आ जाया करते थे ,पापा सुबह का पेपर आँगन में ही पढ़ा करते थे ,एक दिन एक बन्दर और उसका बच्चा पापा के पास आ गए थोड़ी देर बाद बन्दर तो चला गया लेकिन बच्चा वहीँ था इधर उधर घूम के वो पापा की गोद में चढ़ आया पापा ने उसे आधे घंट तक बिठाया ,हम दोनों भाई बहन खिड़की से देख रहे थे गोलू (मेरा छोटा भाई )तो बाहर चला गया ..मैं थोड़ी डर रही थी....बिल्ली के बच्चे ,कबूतर के घोसलें कुछ भी हो उन्हें वेसे ही रहने देते उनके लिए दूध ,पानी का इंतजाम सब माँ की जिम्मेदारी .....हम कहते की पापा इन्हें घर में रख ले तो कहते -'इन्हें स्वतंत्र रहने दो ,प्यार दोगे तो ख़ुद ही तुम्हारे पास आ जायेंगे अतिथि की तरह सत्कार करों जब जाना चाहे जाने दो.

बचपन कि स्मृति में नन्हीं सी बच्ची स्लेट पर कुछ घोट रही है ....माँ खाना बना रही है ...पास ही पिताजी बैठे खाना खा रहे है...साथ ही दरवाज़े के पास बैठी नन्हीं सी बच्ची को लिखना सिखा रहे है....पढाई-लिखाई की पहली धुंधली सी यही याद है ज़हन में ....एक आम भारतीय आदमी के जैसे ही पापा भी थे. सुबह १०.०० से शाम ५.०० बजे तक ऑफिस और उसके बाद का सारा समय घर परिवार के लिए .ईश्वर में अटूट श्रद्धा और विश्वास प्रात: उठते ही भगवान की पूजा अर्चना सबसे पहला काम होता था.पूजा के ख़त्म होने तक उनके श्लोक ,मन्त्र,भजन,आदि का अनवरत उच्चारण बिना नागा होता ...वह गुनगुनाहट रोज कण में पड़ते -पड़ते कब कंठस्थ हो गई इसका एहसास बेटी को ये गुनगुनाहट सुनाई देने लगी , वो कहती कि ,माँ- तुम्हें इतना सब कैसे याद है?तब मन उन स्मृतियों में खो जाता ,जब पापा इसी तरह गुनगुनाते थे और मैं भी उनके साथ गुनगुनाने लगती थी.ऐसा नहीं लगता है कि कुछ आदतें अपने आप ही इसी तरह बनती जाती है.किसी भी वस्तु,चाहे वो कहना हो ,खाना हो,या फिर कोई सामान उसे खूबसूरती के साथ पेश करने का सलीक़ा पापा से ही आया है...छुटपन में यही सलीका दुश्मन था क्योंकि तब इसके लिए डांट जो पड़ती थी...इसको ऐसे रखो,,ये सामान जगह पर क्यों नहीं है,इसे ठीक से रखो,,ये टोकाटाकी कब ज़िन्दगी के सलीक़ा बन तब्दील हो गई पता ही नहीं चला .

हम दोनों भाई –बहमें मैं पापा की फेवरेट थी.स्वाभाविक है कि जो संतान अभिभावकों की इच्छाओं को,सपनों को ,पूरा करते लगते हैं उसके प्रति उनका लगाव थोड़ा सा ज़्यादा ही होता है.

इसकी वजह थी ..मैं भी पापा की तरह ही हर तरह की गतिविधियों में भाग लेती थी ,वे भी पूरे उत्साह से मुझे भाग लेने के लिए भेजते ,मेरी मदद हमेशा करते पर कभी भी स्टार्टिंग से नहीं ,वो कहते -पहले तुम लिखो/तैयार करो फिर मैं दुरुस्त करूँगा.आज इस ब्लॉग पर पापा की सामग्री को सजाते समय भी उन पलों की बेसाख़्ता याद आती है. कोशिश है कि अपने हम-उम्र और बाद की पीढ़ी के लिये ये काम करना ज़रूरी है. उम्मीद करती हूँ कि

ये दस्तावेज़ीकरण पापा से जुड़े आप सभी परिजनों / मित्रों को अच्छा लगेगा.