पिछली चर्चा का शेष भाग -2
बुद्धि प्रधान व्यक्ति :- कुछ व्यक्ति बुद्धि प्रधान होते हैं वे अपनी बुद्धि के सहारे प्रत्येक बात का मापन करते हैं बुद्धि प्रधान में भी दो तरह की बुद्धि वाले व्यक्ति होते हैं कुछ तो अपनी बुद्धि से तत्व ज्ञान को प्राप्त करना चाहते है, तत्व ज्ञान को वे अपने ज्ञान के अनुसार ही जानते हैं अर्थात कई प्रकार के तर्क वितर्कों से साफ कर के तत्व ज्ञान को ग्रहण करते हैं तथा कुछ व्यक्ति आधार हीन तर्क वितर्क करके केवल अपनी बुद्धि का प्रदर्शन करना चाहते हैं।तर्क-वितर्क के सहारे तत्व का निर्माण करने और उस पर चलने की अपेक्षा इस चक्कर में इस प्रकार फंस जाता है जिस प्रकार एक पक्षी किसी जाल में फंस जाता है और उसमें से किसी भी प्रकार से नहीं निकल पाता।तर्क में, वाद-विवाद में गति अवश्य है किन्तु प्रगति नहीं और प्रगति के बिना तत्व का निर्णय नहीं हो सकता। तर्कशील एवं बुद्धि प्रधान प्राणी किसी भी निर्णय पर नहीं पहुँच सकता है क्योंकि तर्क में गति तो है किन्तु वह हमें सगति नहीं देता। तर्कशील व्यक्ति की वैसी ही स्थिति होती है जैसी स्थिति कोल्हू के बैल की होती है, वह बैल सुबह से लेकर शाम तक चलता है गति तो उसमें बहुत है, किन्तु प्रगति कुछ नहीं, बैल कहाँ तक पहुँचता है कहीं नहीं वहीं के वहीं जहाँ सुबह खड़ा था। इतना परिश्रम करने, इतने चलने के बाद भी शाम को वहीं के वहीं नजर आता है। इसी प्रकार तर्कशील व्यक्ति प्रगति के पथ पर अग्रसर नहीं हो पाता है उसकी स्थिति जैसी की तैसी बनी रहती है। जिस प्रकार बेहोश व्यक्ति अर्थहीन बातें करता रहता है तथा जिसका उत्तर नहीं दिया जाता है उसी प्रकार संसार में राग, द्वेष, मोह, माया आदि से भटक रहे जीव तर्क के सहारे बड़बड़ाते रहते हैं। किसी भी प्रकार के नशे में चूर व्यक्ति सही प्रश्न नहीं कर सकता और न किसी प्रकार की सही बात कर पाता है तो संसार के समस्त दुखों से ग्रसित लोग किसी बात को ठीक ढंग से समझ नहीं पाते हैं।
यशो न विद्या न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः।
ते मृत्युलोके भुविभार भूताः मनुष्य रूपेण मृगाश्चरन्ति।।
जिस व्यक्ति के जीवन में विद्या, तप, दान, नम्रता तथा धर्म के गुणों का थोड़ा भी विकास नहीं हुआ है ऐसे व्यक्ति जंगल के मृग के रूप में इस पृथ्वी पर बोझ बने हुए है, ऐसे व्यक्ति के रहने से पृथ्वी भी अपने आप पर अधिक वजन का आभास करती है।
आज के समय में हमें धर्म का स्वरूप समझना इसलिये आवश्यक है कि संसार भिन्न-भिन्न प्रकार के धर्म तथा दर्शनों से भरा पड़ा है। एक अपरिचित एवं धर्म से बिलकुल अनभिज्ञ व्यक्ति यदि किसी धर्म की शरण को स्वीकार करना चाहता है किसी अच्छे से अच्छे धर्म को अपनाना चाहता है तो उसे सत्य और असत्य, अच्छे और बुरे को पहचानने की बुद्धि तो होनी ही चाहिये, यदि व्यक्ति के पास इस प्रकार का ज्ञान नहीं है तो वह भटक जायेगा।‘धर्म सूक्ष्म बुद्धि साहस’’ सूक्ष्म से सूक्ष्म बुद्धिवाला व्यक्ति ही धर्म को ग्रहण कर पाता है। व्यक्ति में सत्य और असत्य का निर्णय करने की बुद्धि स्वयं में होनी चाहिये, यदि उसके पास इस प्रकार का निर्णय करने की बुद्धि है तो वह वास्तविक धर्म का मार्ग अपना कर आगे बढ़ सकता है।
अनन्त उपकारी श्रमण भगवान महावीर की शरण में धर्म प्रधान व्यक्तियों का महत्व नहीं था उनके शासन में तो जो धन के प्रति पूर्ण बैरागी एवं धर्म के प्रति पूर्ण रूप से श्रद्धावन्त हो ऐसे व्यक्तियों का महत्व था। आज हमारे धर्म में इस प्रकार की स्थिति है कि इतने नैतिक दृष्टि से गिरे हुए व्यक्ति आगे आकर नेतृत्व करते हैं। धर्म व संस्कृति में गिरावट एवं इनके प्रति निष्ठा हट जाने का मुख्य कारण व्यक्तियों में सूक्ष्म बुद्धि का अभाव है। धर्म का वास्तविक स्वरूप क्या है, इसके क्या सिद्धांत है उन सबको बुद्धि की कसौटी पर पूर्णरूप से परख कर के एक जौहरी की तरह जाँच करके ही अनुशरण करना चाहिये अन्यथा हमें इसी काल में हमेशा हमेशा के लिय परिभ्रमण करना पड़ेगा तथा इससे मुक्त होने का मार्ग कठिन से कठिन परिश्रम करने के पश्चात भी प्राप्त नहीं हो सकेगा। निरन्तर…