बनी रहे बुज़ुर्गों के प्रति श्रध्दा और अनुराग;उनकी दुआओं से ही जागते हैं हमारे भाग.

मंगलवार, 19 जुलाई 2011

माता पिता को जानकर ही परमात्मा को जाना जा सकता है.




आम आदमी की ज़िन्दगी यूँ ही ख़ामोशी से गुज़र जाती है ,वह ख़ास होती है तो उसके न रहने के बाद उसकी पत्नी और बच्चों के लिए ,बाक़ी तो किसी एक के जाने से दुनियाँ के समंदर में कहीं कोई हलचल नहीं होती है.तूफ़ान आता है तो उसकी पत्नी के जीवन में ...जीवन भर साथ रहने ,अच्छे बुरे हर पल को साथ जीने वाले की ज़िन्दगी में. चले जाने का एहसास ,पल पल उसकी ज़ुबाँ के अभ्यस्त हो चुके शब्द (स्नेह ,प्यार ,तकरार के, ) सुनो...तेरे पापा..क्यों ...आदि अनायास ही निकलते हैं जिन्हें रोकते -रोकते आँखों के उमड़ते सैलाब को रोकना मुश्किल ही नहीं असंभव भी हो जाता है .तूफ़ान उठता है उस बेटे के मन में जिसके सर से पिता का साया उठ गया हो , अचानक उसके मन में जिम्मेदारी का एहसास जाग उठता है;अपनी वास्तविक उम्र से वह रातों ही रात कई साल बड़ा हो जाता है.तूफ़ान उठता है उस बेटी के मन में ..जो होती है अपने पिता की लाडली बिटिया ...नाज़ों से पली ...उसके जीवन में ये तूफ़ान दो बार आता है एक तब जब वह विवाह के समय अपने बाबुल के घर से विदा लेती है और दूसरी बार तब जब वह स्वयं पिता को संसार से बिदा करती है .

जीवन के महासागर में उठे इन तूफानों से जूझने के लिए यादों की कश्ती ही सहारा बनती है. अभिभावकों की वे भावपूर्ण यादें जो हमारे मस्तिष्क में होती है ,जो उनके कार्यों में झलकती है,उनके व्यक्तित्व का आईना होतीं हैं.,उनके कृतित्व की पहचान होती है. उनकी अधूरी ख़्वाहिशे , अधूरे सपने ,अतीत की बातें, कुछ क़िस्से ,यादें
बस ऐसा ही कुछ शब्द-जयंति के ज़रिये आपसे से , अपनों से बाँटना चाहती हूँ .कोशिश होगी कि कभी कुछ मैं अपने मन की कहूँ और कभी कुछ पिता के लिखकर अपने पीछे छोड़े गये उस साहित्य से जिसमें धर्म,जीवन,यायावरी,रिश्तों का शब्दांकन है. कभी लेख,पत्र या कविता के ज़रिये.कभी डायरी के पन्नों के ज़रिये.
हर एक के लिये अपना पिता और माँ दुनिया में सबसे ख़ास होते हैं.तो आपकी शुभकामनाओं के साथ भीगते सावन में शुरू कर रही हूँ "शब्द-जयंति"...इनमें पिताजी भी हैं,उनकी यादें,शब्द भी और उनके न रहने के बाद इन पंक्तियों में अव्यक्त किंतु स्पंदित होता भीगापन भी..
शुरूआत मेरी इस शब्द अंजलि से....

पिता जब जाते हैं तो
ले जाते है माँ के चेहरे की हँसी
जिसमें छुपा है
दर्द ढेर सारा
वह नहीं करती अब बातें
उन तकलीफ़ों की जो
वह झेलती है
पापा के रहते भी वह ख़ामोश थी
और अब भी..
पर....
अब उनकी इस ख़ामोशी से डर लगता है

3 टिप्‍पणियां:

  1. पिता के साहित्य के दस्तावेज़ीकरण का यह संकल्प अतुलनीय और बहुत पवित्र है. इसे पूरे मनोयोग से कीजिये,परिवार और मित्रगण के बीच इस सद-विचार को प्रचारित करना चाहिये जिससे वे भी अपने वरिष्ठजनों की स्मृतियों को सहेजने का आप जैसा अनुकरणीय संकल्प ले सकें.

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  2. माताजी की इसी ख़ामोशी को पढ़ कर,
    उन्हें सहारा देना ही संतान का कर्त्तव्य है
    आपका प्रयास बहुत सराहनीय और अनुकरणीय है.
    स्नेह बनाये रखें

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