बनी रहे बुज़ुर्गों के प्रति श्रध्दा और अनुराग;उनकी दुआओं से ही जागते हैं हमारे भाग.

शुक्रवार, 2 सितंबर 2011

धर्म के सागर का एक धर्म बिन्दु भाग-3 (अन्तिम किश्त)

हम किसे धर्म कहे? क्या विचार, आचार, भाव एवं व्यवहार को? धर्म के बाजार में यह निर्णय करना बहुत कठिन हो जाता है। किसी बात का निर्णय दो रीतियों से होता है, या तो अपनी बुद्धि से स्वयं निर्णय करें या फिर जिसमें स्वयं निर्णय करने की क्षमता नहीं है ऐसे व्यक्ति ने, कुछ सूक्ष्म बुद्धि वाले व्यक्तियों द्वारा लिये गये निर्णय को श्रद्धा पूर्वक मान लेना चाहिये।

हमें हिसाब-किताब बही-चौपड़ा लिखना नहीं आता है तो या तो स्वयं चौपडा लिखना सीखे या फिर नौकरी पर रखे मुनीम ने जो कुछ लिखा है उस पर श्रद्धा और विश्वास करो कि इसने हिसाब सही लिखा होगा। बाद में उसमें शंका करने की आवश्यकता नहीं। जिस व्यक्ति के पास कार है पर ड्राइविंग नहीं आती है तो वह स्वयं सीखे या जो ड्रायवर रखा है उस पर विश्वास रखे कि यह व्यक्ति कार सही ढंग से चला कर मुझे अपने गन्तव्य तक पहुँचाएगा। धर्म के दो स्वरूप :- धर्म के मुख्य रूप से दो स्वरूप है एक अन्तर एवं दूसरा बाह्य। वास्तविक धर्म की प्राप्ती के लिये मनुष्य को स्वयं की अंतर आत्मा में, स्वयं के हृदय में झाँक कर, अन्दर घुसकर देखना पड़ेगा। सज्जन पुरूष परिपूर्ण धर्म करने का दावा कभी नहीं करेगा, तुच्छ बुद्धि वाला व्यक्ति ही बाहरी क्रिया को देखकर निर्णय कर ले, किन्तु बुद्धिमान मनुष्य कभी इस प्रकार का निर्णय नहीं करेगा। ‘‘वचनाव्यिक अनुष्ठानं’’ जिनेश्वर भगवान के वचन को सुनकर उसके अनुसार जो अनुष्ठान, जो क्रियाऐं की जाती है वह धर्म का बाह्य रूप है। जिन-वचन ही उपादेय एवं अनुशरणीय है। जिन-वचन शब्द में दो बाते है जिन एवं वचन जिन शब्द जीत शब्द से बना है। जिन कौन है? जिन्होंने सबको जीत लिया है। किसको जीत लिया है? दूसरे राज्य के राजा इत्यादि को नहीं, अनन्त जन्मों से हमारी अन्तर भूमि में बैठ जाने वाले हमारे अन्तः स्थल को अपना अड्डा बनाये रखने वाले राग, द्वेष, काम, क्रोध, माया, लोभ इत्यादि दुर्गुणों को अन्तरंग से बाहर खदेड़ कर उन्हें पछाड़-पछाड़ कर नष्ट करके ऊपर जिसने विजय पाई वही जिन ही वही जिनेश्वर है और ऐसी ही आत्मा द्वारा कहे हुए वचन जिन-वचन है आदरणीय श्रद्धेय है वे ही वचन हमारे लिये लोक माया राग के दो रूप है। क्रोध अभिमान, द्वेष के ही दो रूप है राग और द्वेष इन दोनो प्रमुख दुर्गुणों का जब तक किसी आत्मा से निष्काषन नहीं होता, जिसके हृदय से जब तक ये दोनो दुर्गुण नहीं निकलते तब तक वह व्यक्ति वास्तविक धर्म की शरण को किसी भी प्रकार से नहीं प्राप्त कर सकता है।

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